शाहजहांपुर(अम्बरीष कुमार सक्सेना) विनोबा विचार प्रवाह के सूत्रधार विनोद भइया ने बताया कि सन 1921 में विनोबा जी का जमनालाल बजाज जी के आग्रह पर वर्धा आना और 1951 में भूदान यज्ञ के निमित्त निकलना। तीस वर्ष, अपरिहार्य कारणों से जेलयात्रा छोड़कर बाबा विनोबा का सारा समय और जीवन ही,विधायक और रचनात्मक कार्य में बीता।शिक्षण ,अध्यापन,ध्यान,चिंतन,निरीक्षण,इत्यादि कार्य विनोबा जी कर ही रहे थे फिर भी जिसे राजनैतिक आंदोलन कहते हैं,उसमें बाबा ने ज्यादा भाग नहीं लिया। हां कर्तव्य बुद्धि से झंडा सत्याग्रह,व्यक्तिगत सत्याग्रह,और सन 1942 का आंदोलन आदि जो भी अपरिहार्य था वह सब विनोबा जी ने किया। बाकी इन तीस वर्षों में एक ही स्थान पर बैठकर समूचे विश्व के साथ अनुसंधान यानी संपर्क रखने का और जिसे गीता अकर्म कहती है उस अवस्था में रहकर कर्म किस प्रकार हो सकता है,उसका ही प्रयोग चलता रहा था।
विनोबा जी ने एक बार बताया कि हमारे सभी मित्र किसी न किसी कारण से राजनैतिक कार्य में लगे हुए थे।जिनका कुछ रचनात्मक कार्य में खिंचाव था।वे भी राजनीति के प्रवाह में आ ही जाते थे। बाबा विनोबा का व्यापक चिंतन होते हुए भी उस राजनीति के प्रवाह में न होना ,इसे एक ईश्वरीय योग ही माना जा सकता है। ईश्वर की कृपा से विनोबा जी को ऐसा सध गया था। मानो दुनिया में कुछ चल ही नहीं रहा है,इतनी तटस्थता से लेकिन दुनिया का निरीक्षण करते हुए तीस साल बाबा विनोबा का अच्छा कार्य चलता रहा।
इन तीस वर्षों में बाबा विनोबा ने जो जीवनयापन किया उसमें उनकी एकांतिक ध्याननिष्ठा थी। इसलिए उन्होंने एक स्थान जिसे कभी छोड़ा ही नहीं। बाबा विनोबा स्थाणु बन गए थे।परमधाम आश्रम और धाम नदी को किसी गोह की तरह चिपककर बाबा बैठ गए थे। गांधी जी के निर्वाण के बाद महाराष्ट्र में कई दुखदायी घटनाएं भी घटी। उसी समय साने गुरु जी ने अत्यंत छटपटाहट से, व्यथित और व्याकुल मन से बाबा विनोबा को पत्र लिखा। विनोबा जी अब तो महाराष्ट्र में आओ। यहां आपकी बहुत आवश्यकता है। यह पत्र साने गुरु जी ने 21 दिन के उपवास के बाद लिखा था । बाबा ने पत्र का उत्तर लिखा था कि मेरे पैर में चक्र है। कभी न कभी घूमने फिरने का योग मुझे है। अभी वह योग आया नहीं है। जब मेरा घूमना प्रारंभ होगा तब मुझे रोकने की शक्ति संसार में किसी की नहीं होगी। हां भगवान ही मेरे पैर को कुछ करके रोक दे तो अलग बात है। उसी प्रकार आज जो मैं बैठा हूं तो मुझे उठाने की शक्ति भी किसी में नहीं है। बाबा विनोबा इतना कठोर,निर्लिप्त, बनकर तन्मयता से रचनात्मक कार्य में लगे हुए थे ।