विश्व स्वास्थ्य दिवस पर विशेष:
हरदोई। अखिलेश आर्येंदु के अनुसार
डाक्टरों की कमी की वजह से कस्बा और गांव के लोगों को मजबूरन झोला छाप डाक्टरों की सेवाएं लेनी पड़ती हैं।
इससे हजारों लोग बेहतर इलाज के अभाव में असमय दम तोड़ देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि गांवों में एलोपैथी के अलावा होमियोपैथी और आयुर्वेदिक चिकित्सकों की भी कमी है। गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं और चिकित्सकों की कमी के चलते रोजाना हजारों लोग इलाज न मिल पाने के कारण असमय दम तोड़ देते हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के दावे कहीं जमीन पर नजर नहीं आते। हां, पिछले कुछ सालों में कुछ बेहतर तो हुआ है, लेकिन इतना नहीं कि उसे संतोषप्रद माना जाए।
देश के कस्बों और गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी के अलावा डाक्टरों की नियुक्ति जरूरत से बहुत कम हो पाई है। महज तमिलनाडु ऐसा राज्य है, जहां गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं को संतोषप्रद कहा जा सकता है। राज्यों ने कुछ साल पहले गांवों में डाक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए सख्त कानून बनाए थे, बावजूद उसके गांवों में सेवा देने से ज्यादातर नए डाक्टर मना कर देते हैं। विडंबना है कि नौकरी के लिए भरा गया वचन-पत्र तोड़ने पर डाक्टर हर साल करोड़ों रुपए जुर्माना भरते हैं, लेकिन गांवों में सेवा देने से मना कर देते हैं।
गौरतलब है कि देश के बीस फीसद डाक्टर ही कस्बों और ग्रामीण क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। इससे गांवों में चिकित्सकों की उपलब्धता नाममात्र की रहती है। इसकी वजह ,सरकार के पास इसका कोई नक्शा न होना है। वहीं इंडियन मेडिकल एसोसिएशन का कहना है कि गांवों में चिकित्सक इसलिए नहीं जाना चाहते, क्योंकि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और सीएचसी में सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। गांवों में आपरेशन थियेटर, एनेस्थीसिया के डाक्टर, पैथालाजिस्ट और टेक्नेशियन्स का जबरदस्त अभाव है। इसके अलावा, गांवों के स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात डाक्टरों की आवास की व्यवस्था और जरूरी फर्नीचर की भी कमी है।
डाक्टरों के संगठन गांवों में डाक्टरों के न जाने की जो वजहें बताते हैं, उन पर राज्य सरकारें गौर नहीं करतीं। डाक्टरों के संगठनों का कहना है कि गांवों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के लिए वे जिम्मेदार नहीं, बल्कि शासन की नीतियां ही ऐसी हैं कि बडे डिग्रीधारी डाक्टर गांवों में अपनी सेवाएं देने को तैयार नहीं हैं। गौरतलब है कि डाक्टरों के संगठन सरकारी नीतियों के विरोध में आए दिन सड़कों पर देखे जाते हैं, लेकिन राज्य सरकारें कोई ऐसा फैसला नहीं कर पाती हैं, जिससे गांवों में स्वास्थ्य सुविधाओं और डाक्टरों की भारी कमी को दूर किया जा सके।
उत्तर प्रदेश में 3,900 मरीज पर एक बिस्तर की व्यवस्था है। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में छब्बीस हजार की आबादी पर एक एलोपैथिक डाक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि हर एक हजार लोगों पर एक डाक्टर होना चाहिए। भारत में तकरीबन दस हजार की आबादी पर सात डाक्टर हैं।
डाक्टरों की कमी की वजह से ग्रामीणों को मजबूरन झोला छाप डाक्टरों की सेवाएं लेनी पड़ती हैं। इससे हजारों लोग बेहतर इलाज के अभाव में असमय दम तोड़ देते हैं। आंकड़े बताते हैं कि गांवों में एलोपैथी के अलावा होमियोपैथी और आयुर्वेदिक चिकित्सकों की भी कमी है। केंद्र सरकार आयुर्वेद और योग को बढ़ावा देने के लिए करोड़ों रुपए हर साल उपलब्ध कराती है। मगर सेवा देने के लिए योग्य चिकित्सकों की कमी है।
इसलिए एमबीबीएस के अलावा बीएमएस और आयुर्वेदिक चिकित्सकों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति की जाने की जरूरत है। गांव के स्तर पर होमियोपैथी और आयुर्वेदिक स्वास्थ्य केंद्रों की कमी पर जल्द कदम उठाएं जाएं तो गांवों में डाक्टरों की कमी के बावजूद लोगों को बचाया जा सकता है।
देश में एमबीबीएस डाक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए विशेषज्ञों द्वारा कुछ सुझाव दिए गए हैं। इनमें ‘फेमिली मेडिसिन’, ‘डिप्लोमा इन जनरल मेडिसिन’ और ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा में स्नातक करना शामिल है। इन तीनों सुझावों पर कारगर ढंग से आगे बढ़ने पर गांवों में बड़े स्तर पर चिकित्सकों की कमी को दूर किया जा सकता है। मगर यदि बेहतर पगार और सुविधाएं डाक्टरों को उपलब्ध कराई जाएं तो पढ़ाई पूरी कर विदेश जाने वाले चिकित्सकों पर रोक लगाई जा सकती है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने गांवों में स्वास्थ्य सेवाओं की कमी की समस्या को दूर करने के लिए एक व्यावहारिक कदम उठाने की बात सालों से कहता आया है। यह फार्मूला है, पांच साल की एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद छात्रों को एक साल का विशेषज्ञता पाठ्यक्रम कराया जाए, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी तैनाती पर ऐसे डाक्टर बिना किसी हिचक के ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी बेहतर सेवाएं दें सकें, लेकिन इससे बात नहीं बनी।
फिर केंद्र सरकार ने एक दूसरा फार्मूला तैयार किया। इसके तहत एमबीबीएस डिग्रीधारी डाक्टरों को परास्नातक यानी एमएस या एमडी में दाखिला तभी मिलेगा, जब गांवों में तैनाती की अनिवार्य अवधि के लिए वे हलफनामा लिख कर देंगे। सरकार ने एक बात इसमें और जोड़ दी कि जो एमबीबीएस डिग्रीधारी छात्र हलफनामा लिख कर देंगे, अगर उनके अंक कम भी होंगे तो भी उन्हें एमएस या एमडी में प्रवेश दे दिया जाएगा।
लेकिन केंद्र सरकार के इस लुभावने फार्मूले के बाद भी गांवों में सेवाएं देने वाले डाक्टरों में कोई खास रुचि नहीं दिखाई दे रही है। ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि इन तमाम कवायदों के बावजूद जब एमबीबीएस डाक्टरों में गांवों में सेवा देने की रुचि नहीं बन पा रही है, तो अब कौन-सा फार्मूला अपनाया जाएगा, जिससे ग्रामीण इलाकों में बदतर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हो सके?
केंद्र सरकार को गांवों में ‘फेमिली मेडिसन’ पाठ्यक्रम से गांवों में डाक्टरों की कमी दूर करने में कितनी कामयाबी मिलती है, इसे अभी बता पाना मुश्किल है। मगर यह फार्मूला अगर कारगर होगा तो गांवों की स्वास्थ्य सेवाओं में डाक्टरों की कमी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकेगा। मगर इन सभी फार्मूलों से भी अगर गांवों की स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं होता, तो क्या किया जाएगा?