अटरिया, स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल: लाखों के उपकेंद्र पर ताला, एएनएम कर रहीं दूसरे के दरवाजे पर टीकाकरण

संवाददाता,, नरेश गुप्ता

अटरिया/सीतापुर: सरकारी योजनाओं की पोल खोलती एक चौंकाने वाली तस्वीर सामने आई है। लाखों रुपये की लागत से बना सिधौली सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अंतर्गत आने वाले टिकौली गांव का उपकेंद्र (आरोग्य केंद्र) पिछले कई सालों से बंद पड़ा है। जहां ग्रामीणों को प्राथमिक चिकित्सा और टीकाकरण जैसी मूलभूत स्वास्थ्य सेवाएं मिलनी चाहिए थीं, वहीं यह भवन जर्जर होकर खंडहर में तब्दील हो रहा है।

गंदगी का अंबार और लापरवाही की पराकाष्ठा

ग्रामीणों के अनुसार, यह उपकेंद्र पूरी तरह से बदहाल हो चुका है, और परिसर में हर तरफ गंदगी का ढेर लगा हुआ है। हालात इतने खराब हैं कि यहां तैनात एएनएम प्रियंका उपकेंद्र के भीतर बैठने के बजाय गांव के ही एक व्यक्ति के घर के बाहर टीकाकरण का काम करती हैं। इस वजह से कई ग्रामीण, खासकर महिलाएं, वैक्सीनेशन के लिए जाने से कतराती हैं। उनका मानना है कि किसी दूसरे के दरवाजे पर जाना न तो सुरक्षित है और न ही सम्मानजनक।
ग्रामीणों ने आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा कि अगर इस सरकारी भवन को चालू रखा जाता तो न केवल टीकाकरण बल्कि अन्य स्वास्थ्य सेवाएं भी आसानी से मिल सकती थीं। लेकिन अधिकारियों की घोर लापरवाही के कारण, यह सरकारी धन की बर्बादी का एक जीता-जागता उदाहरण बन गया है।

ग्रामीणों ने लगाई गुहार, क्या सुनेंगे अधिकारी?

स्थानीय लोगों ने स्वास्थ्य विभाग से तत्काल इस उपकेंद्र को दुरुस्त कराकर चालू करने की मांग की है। उनकी अपील है कि एएनएम को निर्देशित किया जाए कि वह सरकारी भवन में बैठकर ही अपना काम करें। उनका कहना है कि एक तरफ सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के बड़े-बड़े दावे करती है, वहीं दूसरी तरफ गांव में बने लाखों के भवन ताले में कैद हैं।

क्या कहते हैं स्वास्थ्य अधिकारी?

इस मामले पर सिधौली सीएचसी के अधीक्षक डॉ. आनंद कुमार सिंह ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि टिकौली गांव में बने आरोग्य केंद्र में अभी तक किसी स्वास्थ्य कर्मचारी या अधिकारी की नियुक्ति नहीं की गई है और इसमें अभी और समय लग सकता है। उन्होंने बताया कि इस संबंध में उच्च अधिकारियों को कार्यवाही के लिए पत्र भेजा गया है।
यह घटना सरकारी योजनाओं और उनकी जमीनी हकीकत के बीच की गहरी खाई को दर्शाती है। सवाल यह है कि जब लाखों खर्च करके भवन बना दिए जाते हैं, तो उन्हें चालू क्यों नहीं किया जाता? क्या ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के लिए ऐसे ही संघर्ष करते रहेंगे?

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