लखनऊ।
अपने धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले गुरु गोविंद सिंह जी के आदर्शों और उनके परिवार के बलिदान को याद करते हुए भारतीय नागरिक परिषद के तत्वाधान में अश्रुपूर्ण नमन कर श्रद्धांजलि अर्पित की ।
ये धरती वीर छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप और गुरु गोविंद सिंह जी, महारानी लक्ष्मी बाई जैसे महान योद्धाओ की भूमि हैं….. वीरता की अद्भुत और अविस्मरणीय जीवंत कहानियां भारत के इतिहास में गौरवपूर्ण वेदना से गर्व से सिर उठाने को आतुर खड़ी है.
जैसा की सर्वविदित है और इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित बलिदानों से प्रेरणा लेने का माह है दिसम्बर।
भारत वर्ष के संघर्षपूर्ण इतिहास में गुरु गोबिंद सिंह जी सर्वोच्च बलिदान की प्रतिमूर्ति है, उन्होंने जहां अपने उपदेशों से लोगों को धर्म का मार्ग दिखाया है, वहीं अपने कर्मों से सर्वोच्च आदर्श स्थापित किया है। धर्म रक्षा के लिए उन्होंने अपने परिवार को कुर्बान कर दिया। उनके चार बेटे धर्म रक्षा के लिए ही शहीद हो गए। गुरु गोबिंद सिंह जी के त्याग एवं बलिदान की अमर गाथा सुनकर हर हिन्दुस्तानी का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है कि हमारे देश की मिट्टी में ऐसे जाबांज सपूतों ने जन्म लिया जिनके बलिदान और शौर्य की जीवन्त गाथा सदियों तक खालसा पंथ की कुर्बानियों में याद किया जाता रहेगा।
आइए शहादत के उन स्वर्णिम अक्षरों में लिखे पन्नों को पलटते हैं याद करते है सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह और उनके मासूम ,सहृदय, निर्भीक बच्चों की कुर्बानिया…..
सफर-ए-शहादत कि शुरुवात 21 दिसंबर 1704से कई माह पहले प्रारंभ हो गई थी पर इन कुछ दिनों में सहादत की अविस्मरणीय जीवन्त कहानी बलिदान के स्वर्ण अक्षरों में लिखी गई….
धर्म की रक्षा में साहिब श्री गुरू गोबिंद सिंह जी का सारा परिवार उनसे बिछड़ गया था और आत्मसम्मान तथा धर्म की रक्षा हेतु कुर्बान हुआ।
सिख धर्म के जानकार लोगों ने बताया कि मुग़लों द्वारा लगातार धर्म परिवर्तन का दबाव सिख परिवारों में बनाया जा रहा था उसी दौरान, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने चारों साहिबज़ादों, माता गुजरी जी व सिखों के साथ आनंदपुर साहिब के किले को छोड़ दिया, और सरसा नदी की ओर बढ़ गए।
जब गुरु जी अपने सारे परिवार के साथ सरसा नदी पार कर रहे थे तभी धोखे से मुग़लों ने सिखों पर आक्रमण कर दिया। सैकड़ों की मुगल सेना और चालिस सिख सैनिक, जहां सिखों ने एक ओर मुगलों को मुंहतोड़ जवाब दिया, वहीं सरसा नदी में पानी का बहाव तेज़ हो रहा था।जिसके चलते 22 दिसंबर 1704 को गुरू जी का सारा परिवार तेज बहाव में अलग-अलग दिशा में बिछड़ गया
बिछड़ने के बाद गुरुजी अपने दोनों बड़े साहिबज़ादों बाबा अजीत सिंह और बाबा जुझार सिंह के साथ चमकौर साहिब पहुंच गए। जबकि माता गुजरी व दोनों छोटे साहिबज़ादे बाबा जो़रावर सिंह नौ वर्ष और बाबा फतेह सिंह सात वर्ष , रसोइए गंगू के साथ उसके घर मोरिंडा चले गए।
रसोइया गंगू लालची निकला और स्वर्ण मुद्राओं के लालच में आकर धोखे से उन्हे क्रूर नवाब वजीर खान के हवाले कर गया। यातनाओं और जुल्म का एक लंबा दौर चलने के बाद 26 दिसंबर 1704 को सरहिंद के नवाब ने इस्लाम धर्म कबूल न करने पर गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बेटों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को जिंदा दीवार में चुनवा देने की सजा दी।
दिसंबर की बर्फीली सर्द हवाओं के थपेड़े बुर्ज में झेलती मां गुजरी जी ने अपने पौत्रों की शहादत के बाद जीवित समाधि ले ली। चमकौर गढ़ी के युद्ध में जहां एक ओर बड़े साहिबज़ादे और कई सिख योद्धा धर्म की रक्षा करते हुए खालसा पंथ पर कुर्बान हो गए तो वहीं सरहिंद में कट्टर इस्लामी बादशाह औरंगजेब के अत्याचारों से आंख मिलाते हुए छोटे साहिबज़ादे ने भी इस्लाम कबूल ना कर यातनाओं को गले लगाया और नन्ही सी आयु में शहादत का मार्ग चुना।
जुल्म की इंतिहा क्या रही होगी यह सोचकर भी कलेजा मुंह को आता है निश्चित रूप से इस कुर्बानी के गर्व और प्रताड़ना के दर्द को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।
शहादत का इतिहास और अविस्मरणीय बलिदान को याद करने के लिए वीर बाल दिवस के रुप में 26 दिसम्बर को मनाया जाता है । जिस स्थान पर दीवार में जिंदा दफनाने की दर्दनाक घटना हुई थीं वहां आज गुरुद्वारा श्री फतेहगढ़ साहिब बना है। गुरुद्वारे की जमीन की कहानी भी गौरव पूर्ण है। सरहिंद के मुगल नवाब वजीर खान के दरबार में एक विद्वान दीवान टोडर मल थे वह पटियाला से कुछ मील दूर काकरा गांव के एक जैन परिवार से ताल्लुक रखते थे। नन्हें बालकों की शहादत में जहां सभी लोग दुख में डूबे थे ,वही उनके वीरगति को प्राप्त हुए शरीर के अंतिम संस्कार के लिए जब टोडरमल जी ने नवाब से शव देने की प्रार्थना की तो नवाब ने इतनी जमीन देने को कहा जितने में सोने की अशर्फियां खड़ी करके रखी जा सके।
टोडरमल जी ने शर्त स्वीकार कर ली और खड़ी अशरफिया की अपना सब कुछ दाव पर लगा कर मीनार बना दी, जितनी जमीन असफल से भर सकें उतनी ही जमीन प्राप्त कर ली।
और इस प्रकार बहुत ही महंगी जमीन शहीदों के शवों के दाह संस्कार के लिए खरीदी गई थी बाद में उन्होंने उनके दाह संस्कार की भी व्यवस्था की।गवर्नर वजीर खान को इतनी बड़ी कीमत देने के बाद भी टोडरमलजी को यातनाओं और मुसल्फी का जीवन देखना पड़ा। पूरा सिख समुदाय टोडरमल जी को श्रद्धा के साथ याद करता है।
सात और नौ वर्ष के बच्चे जिन्हें खेलने के सिवा कुछ नहीं पता होता, उनको जीवित दीवार में चुनवा देना निश्चित रूप से वेदना की इंतिहा का उदाहरण है, तो वही दसवे सिख गुरु गुरु गोविंद सिंह जी के पूरे परिवार की कहानी से सुर्ख लाल हुए इतिहास के पन्ने आज स्वर्णिम जरूर है पर मुगलों के जुल्म की जीती जागती कहानी आज भी बया करते हैं।
भारत की सभ्यता ,संस्कृति, धर्म और मानव इतिहास की रक्षा के लिए गुरू जी का सारा परिवार खालसा पंथ पर कुर्बान हो गया। आज सभी खालसा पंथ के मानने वालों को यह शपथ लेनी चाहिए कि हम अपने बच्चों को कुर्बानियों की संस्कृति से अवगत कराते हुए नशे से दूर रहने की सीख देंगे। महान कुर्बानियों को याद करते हुए सभी के आदर्श गुरु गोविंद सिंह जी के वचनों का पालन करते हुए मासूम बालकों के कुर्बानियों को नमन करते हुए हर खालसा के घर से नशे का खात्मा होना चाहिए।यह संकल्प आज के पवित्र दिन लेकर ही सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की जा सकती है। नशे को हमेशा के लिए ना कहकर, घर परिवार समुदाय प्रांत और देश को नशे से बचाकर। नशा नैतिक आदर्शों को खोखला कर देता है सही गलत की समझ को खत्म कर देता है, हम पूरे भारत को उड़ता पंजाब बनने से बचा सकते हैं और शहीदों के कुर्बानियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि व्यक्त कर सकते हैं।
आज सिर्फ पंजाब और हरियाणा ही नहीं पूरा देश के युवा एक षड्यंत्र के तहत बड़ी तेजी से नशे की तरफ खींच रहें है, कभी क्रिसमस की पार्टियों तो कभी नववर्ष की पार्टियों में नशे का कारोबार खुलेआम चल रहा है, परिवार के अभिभावकों को जागरूक होकर अपने बच्चों को नशे के इन कारोबारियों से बचाना होगा।यदि आज के समय में गुरु गोविंद सिंह जी होते तो शायद वह भी युवा शक्ति को नशे से दूर रहने का संदेश देते। भारत को नशा मुक्त बनाने के संकल्प के साथ वीरों को शत शत नमन!