अटरिया, पान दुकानदार की विलुप्त हो रही धर्मार्थ निशुल्क भारतीय प्याऊ संस्कृत में जान फूंकने की कोशिश

संवाददाता, नरेश गुप्ता

  • निशुल्क पानी पिलाना बिजनेस नहीं धर्म का है काम
  • 21वीं सदी में गायब हो रही भारत की निशुल्क धर्मार्थ प्याऊ संस्कृत
  • अटरिया बाला,जी कमेटी का आग्रह अन्य क्षेत्रों में निशुल्क प्याऊ लगाकर करें जलदान

अटरिया सीतापुर, भारत में नई उम्र के बच्चों को प्याऊ के बारे में बताना बहुत जरूरी है क्योंकि भारत के लगभग सभी बड़े शहरों से प्याऊ गायब हो गए हैं। जबकि प्याऊ, भारत की सनातन परंपरा का अभिन्न हिस्सा है। भारतीय कथाओं और शास्त्रों में इसके बारे में कई बार उल्लेख किया गया है।

  • प्याऊ क्या होता है, इसकी जरूरत क्या है

प्याऊ, एक ऐसे स्थान का नाम होता है जहां पर आम नागरिकों, विशेष रूप से यात्रियों के लिए पेयजल (पीने का पानी) निशुल्क उपलब्ध होता है। यहां निःशुल्क महत्वपूर्ण है। यदि पेयजल के बदले पैसा लिया जा रहा है तो उस स्थान को प्याऊ नहीं कहा जा सकता। भारत के शास्त्रों में उल्लेख है कि पुण्य अर्जित करने का यह सबसे सरल और उत्तम उपाय है। धनवान लोगों के लिए प्याऊ की स्थापना करना अनिवार्य है। भारत के छोटे शहरों में आज भी यह परंपरा जीवित है परंतु महानगरों में समाप्त हो गई है।

  • प्याऊ को अंग्रेजी में क्या कहते हैं, प्याऊ का पर्यायवाची शब्द क्या है

यदि कोई ऑनलाइन डिक्शनरी में तलाश करेगा तो शायद सही उत्तर नहीं मिलेगा, लेकिन यदि भारत की पुरानी अंग्रेजी भाषा की किताबों में तलाश करेंगे तो कई बार FREE WATER BOOTH लिखा दिखाई देगा। बुजुर्ग बताते हैं कि भारत के कुछ इलाकों में प्याऊ को water hut भी कहते हैं। शास्त्रों में प्याऊ का पर्यायवाची शब्द ‘पोंसर’ बताया गया है। आधुनिक हिंदी की आधुनिक किताबों में ना तो प्याऊ शब्द मिलता है और ना ही पोसर

  • गायब हो चुके हैं चौराहों पर नजर आने वाले ‘धर्मार्थ प्याऊ’

गर्मी के दिनों में शहरों में खस की एक कुटिया डाली जाती। कुटिया में रेत पर 4-5 घड़े लगाए जाते। उसमें पानी के साथ केवड़ा और गुलाब जल मिलाया जाता।

कड़ी धूप में 4 महीने चलने वाले ‘धर्मार्थ प्याऊ’ का यही स्वरूप होता। कुछ जगहों पर इसे ‘पौशाला’ भी कहा जाता। इसके पास से गुजरते ही केवड़े-गुलाब जल की महक और ठंडे पानी की कल्पना लोगों को अपनी ओर खींच लेती।

  • छोटे प्याऊ राहगीरों के भरोसे ही चलते थे। जबकि बड़े और व्यस्त प्याऊ पर महिलाओं को काम पर रखा जाता था।

लेकिन धीरे-धीरे ये प्याऊ गायब हो रहे हैं। कुछ शहरों में इनकी जगह आधुनिक वाटर कूलर ने ले ली है, तो ज्यादातर जगह लोग बोतलबंद पानी खरीदकर पीते

अपने देश में एक वक्त था जब पानी की खरीद-बिक्री पाप समझी जाती थी। उस दौर में देश में पानी पीने और पिलाने की कई अनोखी परंपराएं थीं।

आपने किसी को कहते जरूर सुना होगा कि फलाने के यहां गए तो उसने ‘सूखा पानी’ पिला दिया। बहुत पुरानी बात नहीं, जब बड़े-बुजुर्ग किसी रिश्तेदार या परिचित के यहां हुई खातिरदारी का वर्णन इन्हीं शब्दों से करते थे।

  • आप सोच रहे होंगे कि भला सबको भिगाने वाला पानी खुद सूखा कैसे हो सकता है?

दरअसल; गांव में किसी को पानी बिना कुछ मीठा परोसे देना अशिष्टता मानी जाती थी। कोई मेहमान हो या फिर राह चलता मुसाफिर उसे पीने के पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाता था। भले वह गुड़ की एक डली ही क्यों न हो?

  • ऐसा नहीं करने पर माना जाता कि ‘पानी सूखा’ और ‘खातिरदारी या इज्जत अधूरी’ है।

कुछ दशक पहले तक की बात है। बस, ट्रेन या किसी भी गाड़ी से सफर कर रहे लोग थैलीनुमा चीज को खिड़की से लटका देते थे। कोई भी राहगीर प्यास लगने पर उस थैली से पानी मांग कर पी लेता।

मोटे कपड़े की बनी इस थैली को ‘छागल’ कहते थे। बोतलबंद पानी का कारोबार शुरू होने से पहले लोग इसी थैली में पानी रख बाहर निकलते थे।

कई जगह यह छागल जानवरों के चमड़े से भी बनाई जाती थी।

इसके भीतर का पानी नेचुरली ठंडा बना रहता है। बाहर जितनी ज्यादा गर्मी होती छागल के अंदर का पानी उतना ही ठंडा होता जाता।

अपने देश में एक वक्त था जब पानी की खरीद-बिक्री पाप समझी जाती थी। उस दौर में देश में पानी पीने और पिलाने की कई अनोखी परंपराएं थीं।

बोतल कल्चर और पानी की खरीद-फरोख्त शुरू होने से पहले ‘प्याऊ संस्कृति’ में पानी पीने-पिलाने के अपने तरीके थे। वैसे भी आजकल के बोतलबंद पानी के कल्चर का बोझ प्रकृति बहुत दिनों तक नहीं उठा पाएगी। ऐसे में हमें भूली-बिसरी ‘प्याऊ संस्कृति’ को एक बार फिर से याद कर लेना चाहिए।

  • पानी पिलाना बिजनेस नहीं धर्म का काम

आज एयरपोर्ट से लेकर रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और छोटी-बड़ी दुकानों में पानी की बोतल मिल जाती है। आमतौर पर इन बोतलों की कीमत 20 रुपए से लेकर 300 रुपए तक होती है। कई बार ब्लैक वाटर या नेचुरल ग्लेशियर वाटर के नाम पर ग्राहकों से हजारों रुपए भी वसूले जाते हैं, लेकिन यह चलन बहुत पुराना नहीं है। कुछ दशक पहले तक पानी पिलाना बिजनेस की जगह जिम्मेदारी और धर्म का काम समझा जाता था।

भविष्योत्तर पुराण में एक श्लोक है-

‘’ग्रीष्मे चैव बसंते च पानीये यः प्रयच्छति’’

मतलब, जो इंसान गर्मी और बसंत में पानी पिलाने का इंतजाम करता है; उसके पुण्य का वर्णन हजारों लोग मिलकर भी नहीं कर सकते। दूसरे कई पुराणों में ‘जलदान’ को ‘गोदान’ के बराबर बताया गया है।

  • प्याऊ से बोतलबंद पानी का सफर:

अंग्रेज पानी पिलाने को रखते थे ‘पानी पांडे’, आज 25 हजार करोड़ हुआ बोतलबंद पानी का कारोबार

कहते हैं कि आज ही के दिन मां गंगा धरती पर आई थीं। इसके लिए राजा भागीरथ ने कठोर तपस्या की थी। यही वजह है कि देश भर में लोग गंगा दशहरा के दिन प्याऊ लगवाते हैं। प्याऊ लगवाना, ताल-तलैया या कुंए खुदवाना शुरू से धर्मार्थ काम माना गया है।

आपने किसी को कहते जरूर सुना होगा कि फलाने के यहां गए तो उसने ‘सूखा पानी’ पिला दिया। बहुत पुरानी बात नहीं, जब बड़े-बुजुर्ग किसी रिश्तेदार या परिचित के यहां हुई खातिरदारी का वर्णन इन्हीं शब्दों से करते थे।

  • आप सोच रहे होंगे कि भला सबको भिगाने वाला पानी खुद सूखा कैसे हो सकता है?

दरअसल; गांव में किसी को पानी बिना कुछ मीठा परोसे देना अशिष्टता मानी जाती थी। कोई मेहमान हो या फिर राह चलता मुसाफिर उसे पीने के पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाता था। भले वह गुड़ की एक डली ही क्यों न हो?

ऐसा नहीं करने पर माना जाता कि ‘पानी सूखा’ और ‘खातिरदारी या इज्जत अधूरी’ है।

कुछ दशक पहले तक की बात है। बस, ट्रेन या किसी भी गाड़ी से सफर कर रहे लोग थैलीनुमा चीज को खिड़की से लटका देते थे। कोई भी राहगीर प्यास लगने पर उस थैली से पानी मांग कर पी लेता।

मोटे कपड़े की बनी इस थैली को ‘छागल’ कहते थे। बोतलबंद पानी का कारोबार शुरू होने से पहले लोग इसी थैली में पानी रख बाहर निकलते थे।

कई जगह यह छागल जानवरों के चमड़े से भी बनाई जाती थी।

इसके भीतर का पानी नेचुरली ठंडा बना रहता है। बाहर जितनी ज्यादा गर्मी होती छागल के अंदर का पानी उतना ही ठंडा होता जाता।

अपने देश में एक वक्त था जब पानी की खरीद-बिक्री पाप समझी जाती थी। उस दौर में देश में पानी पीने और पिलाने की कई अनोखी परंपराएं थीं।

बोतल कल्चर और पानी की खरीद-फरोख्त शुरू होने से पहले ‘प्याऊ संस्कृति’ में पानी पीने-पिलाने के अपने तरीके थे। वैसे भी आजकल के बोतलबंद पानी के कल्चर का बोझ प्रकृति बहुत दिनों तक नहीं उठा पाएगी। ऐसे में हमें भूली-बिसरी ‘प्याऊ संस्कृति’ को एक बार फिर से याद कर लेना चाहिए।

  • पानी पिलाना बिजनेस नहीं धर्म का काम

आज एयरपोर्ट से लेकर रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और छोटी-बड़ी दुकानों में पानी की बोतल मिल जाती है। आमतौर पर इन बोतलों की कीमत 20 रुपए से लेकर 300 रुपए तक होती है। कई बार ब्लैक वाटर या नेचुरल ग्लेशियर वाटर के नाम पर ग्राहकों से हजारों रुपए भी वसूले जाते हैं, लेकिन यह चलन बहुत पुराना नहीं है। कुछ दशक पहले तक पानी पिलाना बिजनेस की जगह जिम्मेदारी और धर्म का काम समझा जाता था।

भविष्योत्तर पुराण में एक श्लोक है-

‘’ग्रीष्मे चैव बसंते च पानीये यः प्रयच्छति’’

मतलब, जो इंसान गर्मी और बसंत में पानी पिलाने का इंतजाम करता है; उसके पुण्य का वर्णन हजारों लोग मिलकर भी नहीं कर सकते। दूसरे कई पुराणों में ‘जलदान’ को ‘गोदान’ के बराबर बताया गया है।

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